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कविता

सिवाय इश्क़ या कि

दिनेश कुशवाह


हुआ था जो भी, हुआ था, हुआ वो फिर न हुआ
इस शहर में तो मेरा कोई मुंतज़िर न हुआ।

परीखाने से चले चाँद के मुसाफ़िर का
क्या कोई दिल न हुआ, क्या कोई जिगर न हुआ।

हज़ार ख़्वाहिशों का दम निकल गया लेकिन
वो एक मकान जो अपना था, कभी घर न हुआ।

इश्क़ आदत नहीं फितरत है मेरी क्या कहिए
मेरे मिज़ाज़ का क़ायल वो सितमग़र न हुआ।

सिवाय इश्क़ या कि इंक़लाब करने के
दिले नादां पे किसी बात का असर न हुआ।

कमी नहीं है मेरे चाहने वालों की यहाँ
हँसी आती है कि उनमें कोई दिलबर न हुआ।


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